सोने की चिड़िया जैसे हमारे भारत देश पर राज करने वाली ईस्ट इंडिया कंपनी की कहानी इसका पुरा इतिहास
वो 1600 सोलहवीं सदी का आख़िरी साल था. दुनिया के कुल उत्पादन का एक चौथाई माल भारत (India) में तैयार होता था. इसी वजह से इस मुल्क को सोने की चिड़िया कहा जाता था. तब दिल्ली की तख़्त पर मुग़ल बादशाह जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर की हुकूमत थी.
वो दुनिया के सबसे दौलतमंद बादशाहों में से एक थे. दूसरी तरफ़ उसी दौर में ब्रिटेन गृहयुद्ध से उबर रहा था. उसकी अर्थव्यवस्था खेतीबाड़ी (agriculture) पर निर्भर थी और दुनिया के कुल उत्पादन का महज तीन फ़ीसद माल वहां तैयार होता था.
ब्रिटेन में उस वक़्त महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम की हुकूमत थी. यूरोप की प्रमुख शक्तियाँ पुर्तगाल और स्पेन, व्यापार में ब्रिटेन को पीछे छोड़ चुकी थीं. व्यापारियों के रूप में ब्रिटेन के समुद्री लुटेरे पुर्तगाल और स्पेन के व्यापारिक जहाज़ों को लूटकर ही संतुष्ट हो जाते थे.
उसी दौरान घुमंतू ब्रितानी व्यापारी राल्फ़ फ़िच को हिंद महासागर, मेसोपोटामिया, फ़ारस की खाड़ी और दक्षिण पूर्व एशिया की व्यापारिक यात्राएँ करते हुए भारत की समृद्धि के बारे में पता चला
राल्फ़ फ़िच की ये यात्रा इतनी लंबी थी कि ब्रिटेन लौटने से पहले उन्हें मृत मानकर उनकी वसीयत को लागू कर दिया गया था. पूरब से मसाले हासिल करने के लिए लेवेंट कंपनी दो नाकाम कोशिशें कर चुकी थी.
भारत (India) के बारे में राल्फ़ फ़िच की जानकारी के आधार पर एक अन्य घुमंतू सर जेम्स लैंकेस्टर सहित ब्रिटेन के 200 से अधिक प्रभावशाली और व्यावसायिक पेशेवरों को इस दिशा में आगे बढ़ने का विचार आया.
उन्होंने 31 दिसंबर 1600 को एक नई कंपनी (company) की नींव डाली और महारानी से पूर्वी एशिया में व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त किया. इस कंपनी के कई नाम हैं, लेकिन इसे ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम से जाना जाता है.
1850 में लीडनहॉल स्ट्रीट में बना 'न्यू ईस्ट इंडिया हाउस'
ईस्ट इंडिया कंपनी के आने का एलान
शुरुआती सालों में दूसरे क्षेत्रों में यात्रा करने के बाद अगस्त 1608 में कैप्टन विलियम हॉकिंस ने भारत के सूरत बंदरगाह पर अपने जहाज़ 'हेक्टर' का लंगर डालकर ईस्ट इंडिया कंपनी के आने का एलान किया.
हिंद महासागर में ब्रिटेन के व्यापारिक प्रतिद्वंद्वी डच और पुर्तगाली पहले से ही मौजूद थे. तब किसी ने अनुमान भी नहीं लगाया होगा कि ये कंपनी अपने देश से बीस गुना बड़े, दुनिया के सबसे धनी देशों में से एक और उसकी लगभग एक चौथाई आबादी पर सीधे तौर पर शासन करने वाली थी.
तब तक बादशाह अकबर की मृत्यु हो चुकी थी. उस दौर में संपत्ति के मामले में केवल चीन का मिंग राजवंश ही बादशाह अकबर की बराबरी कर सकता था.
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ख़ाफ़ी ख़ान निज़ामुल-मुल्क की किताब 'मुंतख़बुल-बाब' के अनुसार, अकबर ने पाँच हज़ार हाथी, बारह हज़ार घोड़े, एक हज़ार चीते, दस करोड़ रुपये, बड़ी अशर्फ़ियों में सौ तोले से लेकर पाँच सौ तोले तक की हज़ार अशर्फ़ियाँ, दो सौ बहत्तर मन कच्चा सोना, तीन सौ सत्तर मन चाँदी, एक मन जवाहरात जिसकी क़मीत तीन करोड़ रुपये थी, अपने पीछे छोड़ा था.
अकबर के शहज़ादे सलीम, नूरुद्दीन, जहाँगीर की उपाधि के साथ तख़्त पर आसीन हो चुके थे. शासन में सुधारों को लागू करते हुए कान, नाक और हाथों को काटने का दंड समाप्त कर दिया गया था. (जनता के लिए) शराब और दूसरी नशीली वस्तुओं का प्रयोग और विशेष दिनों में जानवरों के वध पर पाबंदी का आदेश देने के साथ कई अवैध करों को हटाया जा चुका था.
सड़कें, कुएँ और सराय बनाए जा रहे थे. उत्तराधिकार के क़ानूनों को सख़्ती से लागू किया गया था और हर शहर के सरकारी अस्पतालों (goverment hospital) में मुफ़्त इलाज का आदेश दिया गया था. फ़रियादियों की फ़रियाद के लिए महल की दीवार से न्याय की एक ज़ंजीर लटका दी गई थी.
जब अंग्रेज़ों ने औरंगज़ेब को ललकारा था कितने अंधविश्वासी थे बादशाह औरंगज़ेब?
मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी लॉर्ड क्लाइव को बंगाल का संपूर्ण दीवानी अधिकार सौंपते हुए.
मुग़ल बादशाह को मनाने की कोशिश
विश्व विख्यात इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल के अनुसार, हॉकिंस को जल्द ही एहसास हो गया कि चालीस लाख मुग़लों की सेना के साथ वैसा युद्ध नहीं किया जा सकता जैसा कि उस समय यूरोप में हो रहा था.
इसलिए यहाँ उसे मुग़ल बादशाह की इजाजत के साथ-साथ सहयोग की भी ज़रूरत थी. हॉकिंस एक वर्ष के भीतर मुग़ल राजधानी आगरा पहुँचा. कम पढ़े-लिखे हॉकिंस को जहाँगीर से व्यापार की अनुमति प्राप्त करने में सफलता नहीं मिली.
उसके बाद संसद के सदस्य और राजदूत सर थॉमस रो को शाही दूत के रूप में भेजा गया. सर थॉमस रो 1615 में मुग़ल राजधानी आगरा पहुँचे. उन्होंने राजा को बहुमूल्य उपहार भेंट किया, जिसमें शिकारी कुत्ते और उनकी पसंदीदा शराब भी शामिल थी.
ब्रिटेन के साथ संबंध बनाना जहाँगीर की प्राथमिकता में नहीं था. थॉमस रो के अनुसार, जब भी बात होती थी, तो बादशाह उससे व्यापार के बजाय घोड़ों, कलाकृतियों और शराब के विषय में चर्चा करने लगता.
तीन साल तक लगातार अनुनय-विनय के बाद सर थॉमस रो को इसमें सफलता मिली. जहाँगीर ने ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ एक व्यापारिक समझौते पर हस्ताक्षर किये.
समझौते के तहत, कंपनी और ब्रिटेन के सभी व्यापारियों को उपमहाद्वीप के प्रत्येक बंदरगाह और ख़रीदने तथा बेचने के लिए जगहों के इस्तेमाल की इजाजत दी गई. बदले में यूरोपीय उत्पादों को भारत को देने का वादा किया गया था, लेकिन तब वहाँ बनता ही क्या था?
ये तय किया गया था कि कंपनी के जहाज़ राजमहल के लिए जो भी प्राचीन वस्तुएँ और उपहार लाएँगे उन्हें सहर्ष स्वीकार किया जाएगा.
कंपनी के व्यापारी मुग़लों की रज़ामंदी से भारत से सूत, नील, पोटैशियम नाइट्रेट और चाय ख़रीदते, विदेशों में उन्हें महंगे दामों में बेचते और ख़ूब मुनाफ़ा कमाते.
कंपनी की पूँजी का आधार व्यापारिक पूँजी था. कंपनी जो भी वस्तु ख़रीदती उसका मूल्य चाँदी देकर अदा करती, जो उसने 1621 से 1843 तक स्पेन और संयुक्त राज्य अमेरिका में दासों को बेचकर जमा किया था.
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सम्राट जहाँगीर के दरबार में सर थॉमस रो
कंपनी का मुगलों से आमना-सामना
साल 1670 में, ब्रिटिश सम्राट चार्ल्स द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कंपनी को विदेश में युद्ध लड़ने और उपनिवेश स्थापित करने की अनुमति दे दी. ब्रिटिश सेना के सशस्त्र बलों ने पहले भारत में पुर्तगाली, डच और फ़्रांसीसी प्रतिद्वंद्वियों का मुक़ाबला किया और अधिकांश युद्ध जीते. धीरे-धीरे उसने बंगाल के तटीय क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में ले लिया.
लेकिन, सत्रहवीं शताब्दी में, मुग़लों से केवल एक बार उनका आमना-सामना हुआ था. साल 1681 में, कंपनी के कर्मचारियों ने कंपनी के निदेशक सर चाइल्ड से शिकायत की कि बंगाल में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब आलमगीर के भांजे नवाब शाइस्ता ख़ान के अधिकारी उन्हें कर और अन्य मामलों में परेशान करते हैं.
सर चाइल्ड ने सैन्य सहायता के लिए अपने सम्राट को पत्र लिखा. इसके बाद 1686 में उन्नीस युद्धपोतों, दो सौ तोपों और छह सौ सैनिकों वाला एक नौसैनिक बेड़ा लंदन से बंगाल की ओर रवाना हुआ.
मुग़ल बादशाह की सेना भी तैयार थी, इसलिए युद्ध में मुग़लों की जीत हुई. 1695 में, ब्रितानी समुद्री डाकू हेनरी एवरी ने औरंगज़ेब के समुद्री जहाज़ों 'फ़तेह मुहम्मद' और 'ग़ुलाम सवाई' को लूट लिया. इस ख़ज़ाने की कीमत लगभग छह से सात लाख ब्रिटिश पाउंड थी.
सर थॉमस रो के अथक कूटनीतिक प्रयासों के बाद कंपनी को सूरत में स्वतंत्र रूप से व्यापार करने का अधिकार मिल गया
मुग़ल सेना से बुरी तरह ब्रितानी सेना
इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल का कहना है कि ब्रितानी सैनिकों को मुग़ल सेना ने मक्खियों की तरह मारा. बंगाल में कंपनी के पाँच कारख़ाने नष्ट कर दिए गए और सभी अंग्रेज़ों को बंगाल से बाहर निकाल दिया गया.
सूरत के कारख़ाने को बंद कर दिया गया और बम्बई में भी उनका यही हाल किया गया. कंपनी के कर्मचारियों को ज़ंजीरों में जकड़कर शहरों में घुमाया गया और अपराधियों की तरह उन्हें अपमानित किया गया.
कंपनी के पास माफ़ी माँगने और अपने कारख़ानों को वापस पाने के लिए राजा के दरबार में भिखारियों की तरह उपस्थित होने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था. ब्रिटिश सम्राट ने आधिकारिक रूप से हेनरी एवरी की निंदा की और मुग़ल बादशाह से माफ़ी माँगी.
औरंगज़ेब आलमगीर ने 1690 में कंपनी को माफ कर दिया. सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में, ईस्ट इंडिया कंपनी चीन से रेशम और चीनी मिट्टी के बर्तन ख़रीदती थी. सामान का भुगतान चाँदी में करना पड़ता था, क्योंकि उनके पास कोई भी ऐसा उत्पाद नहीं था जिसकी चीन को आवश्यकता हो.
इसका एक उपाय निकाला गया. बंगाल में पोस्ते की खेती की गई और बिहार में अफ़ीम का निर्माण करने के लिए कारख़ाने लगाए गए और इस अफ़ीम को तस्करी के ज़रिये चीन पहुँचाया गया.
उस समय तक, चीन में अफ़ीम का बहुत कम उपयोग किया जाता था. ईस्ट इंडिया कंपनी ने चीनी एजेंटों के माध्यम से लोगों के बीच अफ़ीम को बढ़ावा दिया. कंपनी ने अफ़ीम के व्यापार से रेशम और चीनी के बर्तन भी ख़रीदे और मुनाफ़ा भी कमाया.
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जब चीनियों ने अफ़ीम ख़रीदने से इनकार कर दिया, तो ब्रितानी जहाज़ 'नेमेसिस' ने कैंटन बंदरगाह को बर्बाद कर दिया
जब चीनी सरकार ने अफ़ीम के व्यापार को रोकने की कोशिश की और चीन आने वाले अफ़ीम को नष्ट किया गया, तब चीन और ब्रिटेन के बीच कई युद्ध हुए. जिसमें चीन की हार हुई और ब्रिटेन ने अपमानजनक शर्तों पर चीन के साथ कई समझौते किए.
इस तरह नष्ट किए गए अफ़ीम का मुआवज़ा वसूला गया. उसके बंदरगाहों पर क़ब्ज़ा किया गया. हांगकांग पर ब्रिटिश आधिपत्य इसी श्रृंखला की एक कड़ी थी.
जब चीनी सरकार ने विरोध में महारानी विक्टोरिया को पत्र लिखकर अफ़ीम के व्यापार को रोकने में मदद करने की अपील की तो उस पत्र का कोई जवाब नहीं आया.
जब चीनी ने अफ़ीम खरीदने से इनकार कर दिया, तो ब्रिटिश जहाज नेमेसिस ने कैंटन बंदरगाह को बर्बाद कर दिया।
साल 1707 में बादशाह औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद, विभिन्न क्षेत्रों के लोग एक-दूसरे के ख़िलाफ़ हो गए. कंपनी ने इन परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए लाखों की संख्या में स्थानीय लोगों को सेना में भर्ती किया.
यूरोप में होने वाली औद्योगिक क्रांति के कारण युद्ध तकनीक में भी वे दक्ष हो गए. यह छोटी लेकिन प्रभावी सेना एक के बाद एक पुरानी तकनीक से लैस मुग़लों, मराठों, सिखों और स्थानीय नवाबों की बड़ी सेनाओं को हराती चली गई.
साल 1756 में, नवाब सिराजुद्दौला भारत के सबसे धनी अर्ध-स्वायत्त राज्य बंगाल के शासक बने. मुग़ल शासन के राजस्व का पचास प्रतिशत इसी राज्य से आता था. बंगाल न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में कपड़ा और जहाज़ निर्माण का एक प्रमुख केंद्र था.
इस क्षेत्र के लोग रेशम, सूती वस्त्र, इस्पात, पोटैशियम नाइट्रेट और कृषि तथा औद्योगिक वस्तुओं का निर्यात करके अच्छी कमाई करते थे. कंपनी ने कलकत्ता में अपने क़िलों का विस्तार करना शुरू कर दिया और अपने सैनिकों की संख्या बढ़ा दी.
नवाब ने कंपनी को संदेश भेजा कि वह अपने क्षेत्र का विस्तार न करे. आदेश की अवहेलना के बाद नवाब ने कलकत्ता पर हमला किया और ब्रिटिश क़िलों पर क़ब्ज़ा कर लिया. ब्रिटिश क़ैदियों को फ़ोर्ट विलियम के तहख़ाने में क़ैद कर दिया गया.
मीर जाफ़र का विश्वासघात और प्लासी का युद्ध
ईस्ट इंडिया कंपनी (ist India company) ने नवाब की सेना के सेनापति मीर जाफ़र को अपने साथ मिला लिया, जिसके मन में शासक बनने की इच्छा थी. 23 जून 1757 को प्लासी में कंपनी और नवाब की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ.
तोपों की अधिकता और मीर जाफ़र के विश्वासघात के कारण अंग्रेज़ विजयी हुए और मीर जाफ़र को बंगाल के सिंहासन पर बैठा दिया गया. अंग्रेज़ अब मीर जाफ़र से मालगुज़ारी वसूलने लगे. इस प्रकार भारत में लूटपाट का युग आरंभ हुआ.
जब ख़ज़ाना ख़ाली हो गया, तो मीर जाफ़र ने कंपनी से पीछा छुड़ाने के लिए डच सेना की मदद ली. 1759 में और फिर 1764 में विजय के बाद कंपनी ने बंगाल का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया.
नये-नये करों का बोझ लादा और बंगाल का सामान सस्ते दामों में ख़रीदकर दूसरे देशों में महंगे दामों में बेचने लगे. स्कॉलर वजाहत मसूद लिखते हैं कि अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ब्रितानी व्यापारी चाँदी के सिक्के देकर भारतीयों (Indians) से कपास और चावल ख़रीदते थे.
प्लासी की लड़ाई के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने वित्त और राजस्व की प्रणाली की सहायता से भारत के साथ व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर लिया.
यह व्यवस्था की गई थी कि भारतीयों से प्राप्त राजस्व का लगभग एक तिहाई भारतीय उत्पादों को ख़रीदने में ख़र्च किया जाएगा. इस प्रकार भारत के लोग जो राजस्व देते थे उसके एक तिहाई के बदले उन्हें अपना उत्पाद बेचने के लिए मजबूर किया जाता था.
अंग्रेज़ जब मीर जाफ़र से मालगुज़ारी वसूलने लगे, तो मीर जाफ़र ने कंपनी से पीछा छुड़ाने के लिए डच सेना की मदद ली.
ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन और एक बुरा दौर
इतिहासकार, आलोचक और पत्रकार बारी अलीग ने अपनी पुस्तक 'कंपनी की हुकूमत' में लिखा है, "दुनिया के प्रत्येक देश के व्यापारी भारत के साथ व्यापार करते थे. सभ्य लोगों के बीच, ढाका और मुर्शिदाबाद के मलमल का उपयोग महानता और श्रेष्ठता का प्रमाण माना जाता था. यूरोप के सभी देशों में इन दोनों शहरों के मलमल और चिकन बहुत लोकप्रिय थे."
भारत के अन्य उद्योगों की तुलना में कपड़ा उद्योग काफ़ी बेहतर स्थिति में था. भारत से सूती और ऊनी कपड़े, शॉल, मलमल और कशीदाकारी का निर्यात किया जाता था.
अहमदाबाद (ahemedabad) अपने रेशम और रेशम पर किए जाने वाले सोने-चाँदी के काम के लिए दुनिया भर में मशहूर था. अठारहवीं सदी में इंग्लैंड (England) में इन कपड़ों की इतनी अधिक माँग थी कि सरकार government's) को इन पर रोक लगाने के लिए भारी कर लगाना पड़ा.
कपड़ा बुनाई के अलावा लोहे के काम में भी भारत (India) काफ़ी प्रगति कर चुका था. लोहे से बना सामान भी भारत से बाहर भेजा जाता था. मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के शासनकाल के दौरान मुल्तान में जहाज़ों के लिए लोहे का लंगर बनाया जाता था. बंगाल ने जहाज़ निर्माण में काफ़ी प्रगति की थी.
एक अंग्रेज़ के शब्दों में, "आम अंग्रेज़ों को समझाना मुश्किल है कि हमारे शासन से पहले भारतीय लोग काफ़ी सुखद जीवन व्यतीत कर रहे थे. व्यापारी और साहसी लोगों के लिए विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध थीं. मुझे पूरा विश्वास है कि अंग्रेज़ों के आने से पहले भारतीय व्यापारी बहुत ही आरामदायक जीवन जी रहे थे."
"औरंगज़ेब के शासनकाल के दौरान सूरत और अहमदाबाद से जो उत्पाद निर्यात किया जाता था, उससे क्रमश: तेरह लाख और एक सौ से तीन लाख रुपये की वार्षिक राजस्व की वसूली होती थी."
ईस्ट इंडिया कंपनी एक व्यापारिक कंपनी थी लेकिन उसके पास ढाई लाख सैनिकों की एक फौज थी. जहाँ व्यापार से लाभ की संभावना नहीं होती, तो वहाँ सेना उसे संभव बना देती. कंपनी की सेना ने अगले पचास वर्षों में भारत के अधिकांश हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया.
उन क्षेत्रों पर कंपनी को राजस्व देने वाले स्थानीय शासक शासन करने लगे. प्रत्यक्ष रूप से सत्ता स्थानीय शासकों के हाथों में थी, लेकिन राज्य का अधिकांश राजस्व ब्रिटिश तिजोरियों में जाता था. जनता मजबूर थी.
इतिहासकार बारी अलीग ने अपनी पुस्तक 'कंपनी की हुकूमत' में लिखा है, "दुनिया के प्रत्येक देश के व्यापारी भारत के साथ व्यापार करते थे. सभ्य लोगों के बीच, ढाका और मुर्शिदाबाद के मलमल का उपयोग महानता और श्रेष्ठता का प्रमाण माना जाता था.
अगस्त 1765 में, ईस्ट इंडिया कंपनी ने मुग़ल बादशाह शाह आलम को हराया. लॉर्ड क्लाइव ने पूर्वी प्रांतों बंगाल, बिहार और उड़ीसा की 'दीवानी' अर्थात् राजस्व वसूलने और जनता को नियंत्रित करने का अधिकार 26 लाख रुपये वार्षिक के बदले हासिल कर लिया.
इसके बाद भारत कंपनी के शासन के अधीन आ गया. इतिहासकार सैयद हसन रियाज़ के अनुसार उस दौर में जनता के बीच यह धारणा प्रचलित थी, "दुनिया ख़ुदा की, मुल्क बादशाह का और हुक्म कंपनी बहादुर का."
शाही परिवार की विलसता
मुग़लिया शासन के अंतिम दौर में शासकों द्वारा जनता का ख़ून निचोड़कर जो धन संपदा एकत्र की जाती थी वह शाही परिवार की विलासिता में ख़र्च हो जाता था. मुग़ल शहज़ादे जिन्हें सुल्तान कहा जाता था, वे अपने आलस्य, निष्क्रियता, कायरता और विलासिता के लिए विख्यात थे.
इतिहासकार डॉक्टर मुबारक अली अपनी पुस्तक 'आख़िरी अहद का मुग़लिया हिंदुस्तान' में लिखते हैं कि "सन 1948 में नृत्य और सरोद की महफ़िलों में सब कुछ लुटाकर दाद देने वाले नाकारा सुल्तानों की संख्या 2104 तक पहुँच गई थी. शाह आलम का बेटा अकबर भी कामुकता में अपने बाप से कम नहीं था. अठारह वर्ष की आयु में वह अठारह बेग़मों का शौहर था."
अठारहवीं शताब्दी में, 1769 से 1773 तक बिहार से लेकर बंगाल तक का दक्षिणी क्षेत्र अकाल से प्रभावित था. एक अनुमान के अनुसार अकाल से लाखों लोगों की मौत हुई. गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स की एक रिपोर्ट के अनुसार एक-तिहाई आबादी भुखमरी से मर गई.
मौसम की प्रतिकूल स्थिति के अलावा ग्रामीण आबादी कंपनी द्वारा लगाए गए भारी कर के कारण कंगाल हो गई थी. नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के अनुसार बंगाल का अकाल मानव निर्मित था.
किसी भी तरह के विवाद की स्थिति में ईस्ट इंडिया कंपनी स्थानीय शासकों को अपनी सेना किराए पर उपलब्ध कराती थी. लेकिन इन सैन्य ख़र्चों के बोझ की वजह से वे जल्द ही कंगाल हो जाते और उन्हें अपना शासन गँवाना पड़ता.
मानवीय त्रासदियों से उठाया फायदा
इस तरह, कंपनी लगातार अपने क्षेत्र का विस्तार करती जाती. कंपनी ने मानवीय त्रासदी से भी लाभ उठाया. जोचवाल एक रुपये का 120 सेर मिलता था, वह बंगाल के अकाल के दौरान एक रुपये में केवल तीन सेर मिलने लगा.
एक जूनियर अधिकारी ने इस तरह 60,000 पाउंड का लाभ कमाया. ईस्ट इंडिया कंपनी के 120 वर्षों के शासनकाल के दौरान 34 बार अकाल पड़ा.
मुग़ल शासन के अंतर्गत अकाल के दौरान लगान (कर) को कम कर दिया जाता था, लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी ने अकाल के दौरान लगान में वृद्धि की. लोग रोटी के लिए अपने बच्चों को बेचने लगे.
ईस्ट इंडिया कंपनी के एक कर्मचारी शेख़ दीन मुहम्मद ने अपने यात्रा वृतांत में लिखा है कि "सन 1780 के आसपास जब हमारी सेनाएँ आगे बढ़ रही थीं, तो हमने कई हिंदू तीर्थयात्रियों को देखा जो सीता कुंड जा रहे थे. 15 दिनों में हम मुंगेर से भागलपुर पहुँच गए."
"हमने शहर के बाहर शिविर लगाया. यह शहर औद्योगिक रूप से महत्वपूर्ण था और व्यापार की रक्षा के लिए इसके पास अपनी एक सेना भी थी. हम चार-पाँच दिन वहाँ ठहरे. हमें पता चला कि ईस्ट इंडिया कंपनी का कैप्टन ब्रुक, जो सैनिकों की पाँच कंपनियों का प्रमुख था, वह भी पास में ही ठहरा हुआ है. उसे कभी-कभार पहाड़ी आदिवासियों का सामना करना पड़ता."
"ये पहाड़ी लोग भागलपुर और राजमहल के बीच की पहाड़ियों पर रहते थे और वहाँ से गुज़रने वाले यात्रियों को परेशान करते थे. कैप्टन ब्रुक ने उनमें से बहुत सारे लोगों को पकड़ लिया और उन्हें एक मिसाल बना दिया. कुछ लोगों को सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे गए और कुछ को इस तरह से फाँसी पर लटकाया गया कि पहाड़ों से साफ़ तौर पर दिखाई दे ताकि उनके साथियों के दिलों में दहशत बैठ जाए."
"यहाँ से हम आगे बढ़े और हमने देखा कि पहाड़ी के सभी प्रमुख स्थानों पर हर आधे मील पर उनके शव लटके हुए हैं. हम सुकली गढ़ी और तलिया गढ़ी के रास्ते राजमहल पहुँचे, जहाँ कुछ दिनों तक रुके. हमारी सेना बहुत बड़ी थी लेकिन पीछे से व्यापारियों पर कुछ अन्य पहाड़ियों ने हमला कर दिया. हमारे सिपाहियों ने उनका पीछा किया."
"कई लोगों को मार डाला गया और तीस या चालीस पहाड़ी लोगों को पकड़ लिया गया. अगली सुबह जब शहर के लोग हमेशा की तरह हाथी, घोड़े और बैलों का चारा लेने और जलाने के लिए लकड़ी ख़रीदने के लिए पहाड़ियों के पास गए, तो पहाड़ियों ने उन पर हमला कर दिया. सात या आठ लोग मारे गए. पहाड़ी अपने साथ तीन हाथी, कई ऊँट-घोड़े और बैल भी ले गए.
"हमारे हथियारबंद सैनिकों ने जवाबी कार्रवाई में बहुत से पहाड़ियों को मार डाला, जो तीर कमान और तलवारों से लड़ रहे थे, और दो सौ पहाड़ियों को हिरासत में ले लिया. उनकी तलवार का वज़न 15 पाउंड था और जो अब हमारी जीत की ट्रॉफ़ी बन चुकी थी. कर्नल ग्रांट के आदेश के अनुसार इन पहाड़ियों पर बहुत अत्याचार किया गया. कुछ के नाक और कान काट दिए गए. कुछ को फाँसी दे दी गई. इसके बाद हमने कलकत्ता की ओर अपना मार्च जारी रखा."
टीपू सुल्तान से मिली चुनौती
केवल मैसूर के शासक टीपू सुल्तान ने फ़्रांस के तकनीकी सहयोग के साथ कंपनी का वास्तविक प्रतिरोध किया और कंपनी को दो युद्धों में हराया भी. लेकिन भारत के अन्य शासकों को अपने साथ मिलकार टीपू सुल्तान पर भी क़ाबू पा लिया गया. जब कंपनी के गवर्नर-जनरल लॉर्ड वेलेज़ली को 1799 में टीपू की मृत्यु की सूचना दी गई, तो उसने अपना गिलास हवा में उठाते हुए कहा कि आज मैं भारत की लाश पर जश्न मना रहा हूँ.
लॉर्ड वेलेज़ली के ही कार्यकाल में कंपनी को अपनी सैन्य विजय के बावजूद वित्तीय कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था. उसका क़र्ज़ बढ़कर 3 करोड़ पाउंड से भी अधिक हो चुका था. कंपनी के निदेशक ने वेलेज़ली के व्यर्थ ख़र्च के बारे में सरकार को लिखा और उन्हें ब्रिटेन वापस बुला लिया गया.
साल 1813 में, ब्रिटिश संसद ने भारत में व्यापार पर ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार को समाप्त कर दिया और अन्य ब्रिटिश कंपनियों को व्यापार करने और कार्यालय खोलने की अनुमति दे दी.
औद्योगिक देश से कृषि देश बना भारत
ब्रिटेन के सदन ने 1813 में थॉमस मूनरो से पूछा, जिन्हें 1820 में मद्रास का गवर्नर बनाया गया था, कि औद्योगिक क्रांति के बावजूद ब्रिटेन के बने कपड़े भारत में क्यों नहीं बिक रहे, तो उन्होंने जवाब दिया कि भारतीय कपड़े कहीं अधिक गुणवत्ता वाले हैं.
लेकिन, फिर ब्रिटेन में बने कपड़ों को लोकप्रिय बनाने के लिए सदियों पुराने स्थानीय कपड़ा उद्योग को नष्ट कर दिया गया और इस तरह ब्रिटेन का निर्यात जो 1815 में 25 लाख पाउंड था वह 1822 में बढ़कर 48 लाख पाउंड हो गया.
ढाका, जो कपड़ा निर्माण का प्रमुख केंद्र था, उसकी जनसंख्या डेढ़ लाख से घटकर बीस हज़ार हो गई. गवर्नर-जनरल विलियम बैंटिक ने अपनी 1834 की रिपोर्ट में लिखा कि अर्थशास्त्र के इतिहास में ऐसी विकट परिस्थिति का कोई और उदाहरण नहीं मिल सकता. भारतीय बुनकरों की हड्डियों से भारत की धरती सफ़ेद हो गई है.
किसानों की आय पर 66 प्रतिशत कर लगा दिया गया जो मुग़ल काल में 40 प्रतिशत था. नमक सहित दैनिक उपयोग की वस्तुओं पर भी कर लगाया गया. इससे नमक की खपत आधी हो गई. कम नमक का उपयोग करने के कारण ग़रीबों के स्वास्थ्य पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा तथा हैज़ा और लू से होने वाली मौतों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई.
ईस्ट इंडिया कंपनी के एक निदेशक हेनरी जॉर्ज टकर ने 1823 में लिखा कि भारत (India) को एक औद्योगिक देश की जगह एक कृषि देश में बदल दिया गया ताकि ब्रिटेन में निर्मित सामान भारत (India) में बेचा (selling) की जा सके.
1833 में, ब्रिटिश संसद द्वारा एक क़ानून पारित कर ईस्ट इंडिया कंपनी से व्यापार करने का अधिकार छीन लिया गया और इसे एक सरकारी निगम में बदल दिया गया.
तोप के मुंह पर बांधा गया एक शख्स और सैनिक
1874 में भंग हुई ईस्ट इंडिया कंपनी
विलियम डेलरिम्पल ने अपनी किताब 'द अनार्की, द रिलेंटलेस राइज़ ऑफ़ द ईस्ट इंडिया कंपनी' में लिखा है कि ये इतिहास का एक अनूठा उदाहरण है जिसमें अठारहवीं शताब्दी के मध्य में एक निजी कंपनी ने अपनी थल सेना और नौसेना की मदद से 20 करोड़ की आबादी वाले एक देश को ग़ुलाम बना दिया था.
कंपनी ने सड़कें बनाईं, पुल बनाए, सराय का निर्माण किया, रेल चलाई, मगर आलोचकों का कहना है कि इन परियोजनाओं ने जनता को परिवहन की सुविधाएँ तो दीं, लेकिन इसका असली उद्देश्य कपास, रेशम, अफ़ीम, चीनी और मसालों के व्यापार को बढ़ावा देना था.
साल 1835 के अधिनियम के अंतर्गत अंग्रेज़ी भाषा और साहित्य को बढ़ावा देने के लिए धन आवंटित किया गया था. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम (कंपनी के अनुसार विद्रोह) के दौरान, कंपनी ने हज़ारों लोगों को बाज़ारों में और सड़कों पर लटकाकर मार डाला और बहुत से लोगों को कुचल डाला गया.
यह ब्रिटिश औपनिवेशिक इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार था. स्वतंत्रता संग्राम के अगले वर्ष एक नवंबर को ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने कंपनी के अधिकारों को समाप्त कर शासन की बागडोर सीधे तौर पर अपने हाथों में ले ली.
कंपनी की सेना का ब्रिटिश सेना में विलय कर दिया गया और कंपनी की नौसेना को भंग कर दिया गया. लॉर्ड मैकाले के अनुसार, कंपनी शुरू से ही व्यापार के साथ-साथ राजनीति में भी भागीदार थी, इसलिए कंपनी की आख़री साँसें 1874 तक चलती रही.
उसी वर्ष, ब्रितानी अख़बार द टाइम्स ने दो जनवरी के अंक में लिखा, "इसने मानव जाति के इतिहास में ऐसा काम किया है, जैसा किसी और कंपनी ने नहीं किया और आने वाले सालों में कोई ऐसा करे इसकी संभवना भी नहीं है.
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